कल रात आठ बजे जब कमरे पर पहुंचा तो पाया जींस
की जेब में पर्स नहीं है . पर्स में दस रूपये के दो नोट और एक हजार वाले पांच नोट
थे . हजार रूपये वाले नोट असली नहीं थे , नकली थे . दस रूपये में पांच नोट लिया
था हजार रूपये वाला, एक दुकान से
.नाटक के एक दृश्य में जरुरत थी .
पर्स के खोने का गम नहीं था लेकिन पॉकेटमारी हो जाये तो खीज तो होती ही है ,
इतना
लापरवाह कैसे हो गया ही कोई मेरा पर्स टपका दे .
रातभर नींद नहीं आई . सोचता रहा - कब पर्स
उड़ाया होगा मेरे पॉकेट से . राजेंद्रनगर से जब चला था तो पर्स पॉकेट में था ,
रास्ते
में बस कंडक्टर को बस पास दिखाने के लिए पर्स से पास निकालकर कमीज वाले पॉकेट में
रखा था . साथ ही पांच सौ का एक नोट भी कमीज वाले पॉकेट में था . जींस को नाटक वाले
दिन पहना था तो पर्स जींस की जेब में था और पर्स में रह गया था नकली नोट .
मेहदीपट्नम में उतरने के बाद पॉकेट में आदतन हाथ डाला था , उस समय पर्स
पॉकेट में ही था . तो पॉकेटमारी मेहदीपट्नम
से राजेंद्रनगर लौटते समय हुआ है .
जब इण्टर में था तो मेरा एक सहपाठी था , जिससे मेरी गहरी छनती थी , पॉकेटमार था . उसके दूर के रिश्ते का मामू भागलपुर स्टेशन पर पॉकेटमारी करता था . उसने पॉकेटमारी उसी मामू से सीखा था , पर वह इसे एक हुनर की तरह समझता था . एक बार मैंने भी जिद्द किया था की मुझे भी सिखाओ - तो उसने अपने मामू से मिलवाया था और तीन दिन तक उनका शागिर्द रहा था ( लेकिन अंतिम दिन एक लड़के को पीटते देखा तो सारा उत्साह काफूर हो गया और फिर कभी मामू से नहीं मिला -- ये पूरा प्रकरण बड़ी मजेदार है , कभी इस पर भी सविस्तार लिखूंगा -). उन तीन दिनों में पॉकेटमारों के गतिविधियों के बारे में तो समझ बन ही गयी थी . खैर पूरी घटना पर एक बार फिर से जब गौर किया तो दो - तीन चेहरा नज़र आ रहा था जिसपर पॉकेटमारी का शक हो रहा था .
आज शाम फिर मेहन्दीपटनम बस स्टैंड पर रुका.
मेरी नज़र एक चेहरे पर गई जिस पर मुझे शक था पॉकेटमारी का . उसे देखकर मैंने
मुस्कुराया , उसने
भी मुस्कराहट से जवाब दिया . मैं बस स्टैंड के बगल में खड़े स्वीट कॉर्न बेच रहे
छोटे लड़के से दस रूपये का 'स्वीट
कॉर्न ' बनाने को कहा .
तब तक वो आदमी जिस पर मुझे शक था पॉकेटमारी का , उसने भी उस लड़के से दस रूपये का 'स्वीट कॉर्न ' बनाने
को कहा. जब छोटू हमारे लिए 'स्वीट
कॉर्न ' बना रहा था , तो उस आदमी ने पूछा - 'क्या काम करते हो ?'
मैंने उसके प्रश्न को नज़रअंदाज़ कर दिया . उसने फिर पूछा - 'कहाँ तक पढ़े लिखे हो' - ये दोनो सवाल मुझे चुतियापा लगता है -
मैंने हसते हुए कहा - 'स्वीट
कॉर्न बन रहा है - खाते है'. खाने
के बाद चेंज पैसे की समस्या आई.
उसने बिना कहे ही मेरे पैसे चुका दिए . पता नहीं क्यों धन्यवाद देने
की बजाय मेरे मुँह से निकल गया - अभी भी मेरे दस रूपये बांकी है . वह अजीब तरीके
से हंसा , फिर
बोला - ठीक है , लेकिन
तुम करते क्या हो ?
मैंने कहा - कुछ करूँ ना करूँ लेकिन तुम्हारा
वाला काम नहीं करता हूँ .
लेकिन मुझे तो बिरादर लगते हो , पहचान कैसे लिया - - उसने फिर लगभग हसते हुए पूँछा. - बुरा आदमी दीखता हूँ क्या ?
मैंने उसे गौर से देखा - मुझे वो कई सफेदपोश
शरीफों से ज्यादा शरीफ लग रहा था . मैंने कहा - बुरा क्यों दिखोगे , बिरादर ही समझो - चलो एक फोटो खींचते
हैं साथ -साथ . वो डर गया उसे लगा कहीं मैं उसे फंसा ना दूँ . मेरा उद्देश मात्र उसके साथ फोटो
खिंचा इस घटना को फेसबुक या ब्लॉग पर डालने के लिए था . उसने थोड़ी सख्ती से कहा - नहीं फोटो -
शोटो नहीं खिंचवाना . मेरी बिरादरी के नहीं हो लेकिन शरीफ हो - ये लो दस रूपये .
यह कहकर उसने दस रुपया मेरी हथेली पर रख दिया और तेजी से गली की तरफ चला गया .
उस पॉकेटमार से अपने बारे में 'शरीफ ' सुनना सचमुच भला लगा .
~~~ रामानुज दुबे
~~~ रामानुज दुबे