वह
जलाया गया बच्चा
जो कल
दिन में मर गया
मुझे रात भर परेशान करता रहा .
दांत
भींचे
अपने दर्द को दबाते हुए
पूछता रहा लगातार
क्या ग्यारह मरने की सही उम्र है ?
मेरे हाथ में ना बन्दूक थी
ना कोई हथियार
ना बलिष्ठ काया
ना ही आतंकी इरादा
जिन्दा जला दिया गया
फिर भी
निर्बल था मैं
क्या निर्बलता की मुझे मिली सजा .
अच्छा किया
नहीं मारा मुझे बन्दुक की गोली से
नहीं कुचला
भारी-भरकम कील ठुंके बूट से
नहीं क़त्ल किया
विष चुभे खंजर से
जलाया मुझे आग में
लपलपाती आग
असहनीय पीड़ा झेलते जल गया मैं
आग की लपटों में
जलता जिन्दा
शरीर
मशाल बन मरता है
पर सोचता हूँ
क्या मैं बन पाउँगा मशाल
निहत्थे का
निरीह का
न्याय
का
शहर समाज के हर निर्बल गरीब का .
~~~ रामानुज दुबे
No comments:
Post a Comment