गांव की एक पतली पगडण्डी पर
लोटता हुआ बालक
मचलता है
लपकता है
माँ की ओर
देखता है
माँ की
धसी हुई छाती
फटी हुई साड़ी
ढीले पड़े शुष्क स्तन
बांहे फैलाये दो बेजान हाथ
बालक
ठिठकता है
रुक जाता है
माँ के कामों में
बिना व्यवधान डाले
अपने खेल में
मग्न हो जाता है
शायद
अपने तौर से
पुरे समाज की
खिल्ली उडाता है .
रामानुज दुबे
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