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29 May, 2011

नहीं निकल पा रहा ...................................


मै  ' मै ' से नहीं निकल पा रहा 
मै ' तुमसे ' भी नहीं निकल पा रहा 
करता हूँ  धरती आसमान की बातें
पर मै घर से नहीं निकल पा रहा 

जिन्दगी जीने की जिद्द है 
हर रोज मरने से नहीं निकल पा रहा 
भूख से लड़ता हूँ हर छन 
भूख से नहीं निकल पा रहा 

सीने में आग लिये बैठा हूँ 
पर बरसात से नहीं निकल पा रहा 
जिन्दगी तेरे आस पास रहना मुझे
मुर्दों की बस्ती से नहीं निकल पा रहा 

रामानुज दुबे 







19 May, 2011

रिश्ता


रिश्ता

सांप और सीढियों
सा हमारा रिश्ता
चढ़ाव उतरन से
आजिज मै
काश सीखा होता
तुम्हारी तरह
गिरगिट जैसे
दीवारों को पकड़
शिकार को
गटक जाना
या रंग बदल
झाड़ियो में छुप
नए शिकार को
चुन पाना

तेरे साये से
मुक्त मै
अब इस बात का
कोई गुरेज नहीं
तुम
परी बनो या पतिता

रामानुज दुबे

(यह कविता मेरे उन सारे दोस्तों को समर्पित जिन्हें दुखी आत्मा टाइप कविता पसंद है )