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17 June, 2011

सोनिया जी ....

सोनिया जी 
हमें भी सिस्टम में सटाइये 
हर साल दो साल 
कोई पद या तमगा दिलवाइए 
गलती से भी 
हम करप्सन की बात न खोलेंगे 
शर गोतकर
आपकी जय बोलेंगे 
कहेंगे 
जो करते बात करप्सन की 
वो जातिवादी है 
उन्मादी है 
आतंकवादी है 
व्याभाचारी है 
मुर्ख भी है 
जाहिल भी है 

कहेंगे 
सब चोर है 
बाबा सन्यासी 
असल में है ये 
लादेन  राजा के साथी 
सच्चाई तो यह है 
ये है सत्ता के दलाल 
फायदा देखा 
तो हो गए विपक्ष के साथ

कहेंगे 
लोकपाल के बनते ही 
ये सोसाइटी वाले 
बन जाएँगे करोडपति 
गटक कर जाएँगे 
सारी जन संपत्ति  
ये लोकतंत्र का खतरा है 
क्या इनके पास भी कोई जनता है 

सुना है 
इस लोकतंत्र में 
बड़े नेता भी चुन कर नहीं आते 
जो चाटते है तलवे आपके 
वो प्रधानमंत्री बन जाते 
इस लोकतंत्र में 
सत्ता है 
गुलाम है 
बाबु है 
दलाल है 
जनता कहा है  आपकी नजर में 
वो तो आपके तलवे के पास है





रामानुज दुबे 




  

14 June, 2011

दलित

{यह कविता महान क्रांतिकारी che गुएवारा (che guevara ) के जन्म दिन ( 14th  जून )पर  उनको समर्पित ....जिनसे कई मुद्दों पर 'असहमत' होते हुए भी 'सहमत' हु }

वह रो रहा है 
कल भी रो रहा था 
आज भी रो रहा है 
शायद , कल भी रोयेगा 

रोना उसका चिरंतन सत्य है 
ठीक उसी तरह 
जिस तरह 
आना सूरज का 
रोज सुबह 
बहना हवाओ का 
चारो तरफ 

वह रोता क्यों है 
यह सवाल 
उसके सामने भी है 
एक सवाल 
बस रोता रहता है 
यह सोच 
की यही उसकी नियति है 
यही उसकी जिन्दगी है 

उसे शायद पता नहीं 
रोना
 किसी की नियति नहीं होती 
जिन्दगी नहीं होती 
रोना क्षण भर का आवेग है 
क्षण भर ही सही लगता है 
नहीं 
क्षण भर भी सही नहीं लगता 
पर हो सकता है 
क्षण भर का रोना 
क्षम्य हो 
सह्य हो 

वह दिन मे भी रोता है 
वह रात मे भी रोता है 
वह इतना रो चुका है 
वह सपने मे भी रोता है 
गाने में भी गाता है 
रोने का गीत 

उसके चारो तरह के 
हसने की दुनिया 
अब भयभीत है 
उसके लगातार रोने से 
है भयाक्रांत 
कही रोने का वेग 
सबल न हो जाए
टूट कर यह रोना 
न आ जाए कही 
हसने वाले की दुनिए मे 

हसने वाली दुनिया के लोग 
कभी हंसी बाटने की बात करते है 
कभी उसे 
अपनी दुनिया में बसाने की बात करते है 
कभी न रोने की तरकीब बताते है 
कभी हसने का गुर सिखाते है 

सावधान ! रोने वालो 
दिग्भर्मित न हो जाना 
हसने वालो की सहानभूति से 
ये हसते है 
क्योकि इन्होने छिना है 
तुम्हारी हंसी 
ये सहानभूति जताते है 
प्रेम दिखाते है 
यह दिखावा है 
छलावा है 

यह छलावा 
तुम्हारे आंसू नहीं पोछेंगे
पोछेंगे आंसू 
तुम्हारे अपने ही हाथ 
हसने के लिए 
करो मजबूत अपना हाथ 
इससे ही बदलेगी दुनिया 
इससे ही बनेगा नया समाज 

रामानुज दुबे 






10 June, 2011

सड़क पर का खड़ा आदमी ..................

कैलेंडर  में पड़ी तारीखे 
मानो
 सड़क पर का खड़ा आदमी 
वक़्त के साथ हो जाता है 
एक गुजरा कल 
 मानो 
धुंधले सीसे पे पड़ी मोटी गर्द 
सपने सहेजने भर के लिए 
एक सतत जद्दोजहद
सूरज को समझाने को 
चाँद पर जाने को 
आकाश थाम
धरती को बढाने को 

सड़क पर का खड़ा आदमी 
तैयार इतिहास बन जाने को 
अज्ञात बन 
हर उस शख्स के पीछे 
खड़ा रह 
फ़ौज बन जाने को 
जो आवाज लगा कहता हो 
निकल पड़ा हु मै 
सपने बचाने को 

सड़क पर का खड़ा आदमी 
भूखा  नंगा 
सत्तासीन समाज से निर्वासित 
लड़ रहा 
कैलेंडर से निकल 
अपना अस्तित्व बताने को 
भूत से निकल 
वर्तमान से लड़ 
भविष्य बचाने को 



रामानुज दुबे