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27 July, 2011

ओस और आसमान ..............

ओस से टपका आसमान 
भींगा मन 
तृप्ति की चाह लिए 

सामने पड़ा समंदर 
खारा नमकीन 
प्यास बुझाने में असमर्थ 

ओस की ओट में छुपा 
आसमान निहारता आम जन 
बदलाहट की अकुलाहट लिए 

स्वेद जल के बाढ़ से 
क्या संभव है 
समंदर का  मीठा होना 

समंदर से निकालना होगा आसमान 
मीठा सच्चा विस्तार लिए हुए 
सपना असंभव को संभव बनाने का 




रामानुज दुबे 






19 July, 2011

वह औरत ....

वह अस्पताल के बाहर 
फर्श पर पड़ी 
प्रसव वेदना से छटपटा रही थी 
उसका पति 
मुह में पान चबाये 
उसकी पीडा को 
बिना दिल में लाये 
नर्स से बतिया रहा था 
नर्स को 
समझा रहा था 
कह रहा था 
यह नवमी  बार का चक्कर है 
अब तक आठ जन चुकी है 
पाँच मरा है 
तीन खड़ा है 
का कहें मैडम 
इस औरत का 
किस्मत ही सड़ा है 
लड़की जनती है हरवार 
ना चाहते भी 
आना पड़ता है अस्पताल 
हजारों खर्च कराएगी 
फ़िर एक लड़की 
यहाँ से लेके जायेगी 
ना जीती है 
ना मरती है 
सर का बोझ है 
दिनभर हमसे लड़ती है 
आइये  मैडम 
जल्दी इस बार का काम निबटाइये
हमको तो फिर 
आना ही है अगले साल 
जबतक नर्स 
अस्पताल के बाहर निकली 
तब तक वह औरत 
मर चुकी थी 
आसमान की ओर मुंह फॉड़े
शायद पूरी दुनिया से कुछ कह रही थी 

ऎसी औरत मै रोज देखता हूँ
फर्क सिर्फ़ इतना है 
यह औरत 
फर्श पर लेटी, मरी पड़ी है 
दूसरी औरत 
जिन्दा है चल रही है 






रामानुज दुबे 

02 July, 2011

एक जलता हुआ गावं...


एक जलता हुआ गावं
वह 
जो था  बेजुबान 
जो था सदियों तक मौन 
निसहाय असहाय 
आज भी वह
पर बोल रहा अब
वह शस्त्र की जुबान 

एक जलता हुआ गावं 
मुर्दों की सड़ांध 
उसमे भींगा
 पूरा प्रान्त 
कढाई में पक रहा 
मानव मांस 
जो पतीली में परोसा गया 
गगनभेदी कहकहे के साथ 
चख रहा 
सत्ता बुर्जुवा सामंतशा 

एक जलता हुआ गाव
झेल रहा जनतंत्र की 
आऊं माओं टौ
मदमाती सत्ता 
आज भी न 
सुनेगा उसको 
कुचलना चाह रही 
उसकी नव जुबान 

(फोटो इन्टरनेट से )

रामानुज दुबे