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13 December, 2014

मुक्ति --

मैं
जिंदगी में मौत
ढुढंता हूँ
और
मौत में जिंदगी .

दोनों गड्ड मड्ड हैं
मेरे लिए .

कमरे की चारोँ दीवारें
जो दरअसल
दीवारें ही हैं
छत सी लगती हैं
इन छतों पर
दिखता है
उछलते
फुदकते
कूदते
फांदते
छिपकलियां

मेरे लिए ये दीवारें
कभी छत नहीं बन सकती 
कोशिश कर
गर सर हाथ को झुकाकर
टाँग से मिला भी दूँ
तो भी
छिपकली नहीं बन सकता .

बहुत दूर का सफर
शरीर तय नहीं कर सकता
रूह जा सकती है दूर तक

शरीर को
कमरे की दीवारों में टॉक
रूह बन जाना  चाहता हूँ .

~~~ रामानुज दुबे



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