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25 September, 2014

उस पागल का प्रलाप -


उस पागल का प्रलाप


पानी सड़ चुका है
हवा सड़ रही है
जमीन आधा से ज्यादा
सड़ चुका है
हम सब जिन्दा हैं
सड़ते हुए
एक दिन
सड़ते सड़ते
मर जाएंगे .

सुबह -सुबह
बिंध  रहा था मेरी कानों में
उस पागल का अनर्गल प्रलाप

चिल्ला रहा था जोर जोर से

मार्स , वीनस
कहीं पहुँच जाओ
तुम सड़ा दोगे उसे भी

जगह पलायन करने से क्या होगा
दिमाग में तो लिए जा रहे हो सड़ांध ही

चार डग खोज रहे हो रोज
ताकि मौका मिले
सड़ाने गलाने के लिए और

तुम पलायन कर सकते हो
पृथ्वी से मार्स या वीनस
मिल सकता है
सब कुछ ताज़ा
क्षण भर की ताज़गी

हमारा पलायन होता भी है तो
बस एक सड़ी जगह से
दूसरी सड़ी जगह तक

हम तो पलायन करना ही नहीं चाहते
सड़े जगहों में भी
हमने भी तक बचा रक्खी हैं
जीने भर की ताज़गी .

पर तुम्हारे कुकृत्य
हावी है हमारी हर जगह पे
सड़ रहा है धीरे -धीरे
हर एक कोना
हम
मरने के लिए विवश
सड़ते हुए
तुम्हारी सड़ांध के बीच

और वह पागल
बेजार रोने लगा
पुरे पेट से
मेरी आत्मा हिल गयी

मैंने डरते हुए पूछा
कौन हो तुम ?
उसने अट्टहास करते हुए कहा
तुम पूछते हो की मैं कौन हूँ

मैं हर आदमी का
शैशव हूँ
किशोर हूँ
जंगल हूँ
खेत खलियान हूँ
पहाड़ हूँ
पत्थर हूँ
समंदर हूँ
तुम्हारे बीच का ही
आदि मानव हूँ
किसान हूँ
तुम्हारा पूर्वज भी  हूँ
और कोमल सा पाषाण भी

~~~ रामानुज दुबे

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