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11 June, 2010

पत्थर ..........

दुनिया रोज बदलती है
और बदलती है भावनाए
सपने रोज बनते है
दिखती है
हर एक में संभावनाए
पर कुछ जड़ है
पत्थर  है
पत्थर रोज नहीं बनते
न ही वे बदलते है
बेजान सा पड़े रहते है
अड़े और खड़े रहते है

पत्थर अड़ते है
क्योकि सदियों से झेला है
प्रकृति की मार
कठोरता
बरबस नहीं बने है उसके संस्कार
सहा है उसने
उमस भरी गर्मी को
बर्फीली सर्दी को
झंझावात को
चक्रवात को
अपने से निकलते आग को

पत्थर मूक होते है
उसको जुबाँ नहीं होता
ना उसका धरती होता है
ना उसका आसमान होता
अपनी परिधि तक सीमित
पत्थर
अपने अस्तित्व से लड़ता है
 सृष्टि से लड़कर
अपनी सृष्टि रचता है

रामानुज दुबे

2 comments:

  1. It is a wonderful poem. Who wrote it? A lot of metapher.

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  2. of course its mine sir...........perhaps first time you ve gone through my poem..............

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